स्त्री
विमर्श के परिप्रेक्ष्य में ‘छिन्नमस्ता’
आधुनिक
काल में सबसे ज्यादा चर्चित विषय है स्त्री विमर्श। पितृसत्तात्मक मानसिकता के विरुद्ध
स्रियों ने एक जुट होने पर जिस शक्ति का उद्भव हुआ है वही नारीवाद या स्त्री विमर्श
है। आज तक की सभी संस्कृति, दर्शन व साहित्य पुरुष केंद्रित रहा है। अब स्त्री की निगाहों
से इस दुनिया को देखने और परखने की जरूरत है। स्त्री विमर्श का मूल सिद्धांत ही यही
है। स्त्री विमर्श का अर्थ पुरुषों का विरोध नहीं बल्कि एक ऐसे समाज की स्थापना पर
बल देना है जो समाज मनुष्य जीवन के सभी पक्षों का उचित समायोजन कर सके और साथ ही सामंतवादी
सोच और मूल्यों का विरोध कर पाने में सक्षम हो। स्री के सशक्तिकरण से अभिप्राय उसका
मर्द बन जाना नहीं है बल्कि उसके सशक्तिकरण का अर्थ परिवार के जनतांत्रिक पक्ष पर बल
देना है।
स्त्रियों
पर पुरुष द्वारा सदियों से होते आए शोषण, अत्याचार तथा दमन के प्रति स्त्री-चेतना ने
ही स्त्री विमर्श को जन्म दिया है। स्त्री विमर्श आत्मचेतना, आत्मसम्मान, समानता और
समानाधिकारी की पहल का नाम है। स्त्री को अपने अस्तित्व के बोध ने ही विमर्श की प्रेरणा
है। स्त्रियों को अपने आत्मसमर्पण और पितृसत्तात्मक व्यवस्था से बाहर लाने का पूरा
श्रेय स्त्री विमर्श को ही जाता है। हमेशा ऐसा माना जाता है कि स्त्री सदियों से पुरुष
की गुलाम है और आगे भी ऐसे ही रहेगी। स्री-मुक्ति के आलोचक इस सोच को बनाए रखने के
कारण जब कभी भी स्त्रीवाद से जुड़ी किसी समस्या की प्रस्तुति होती है तो उसे नकारा जाता
है। इस बात को मानना पड़ेगा कि परिवार, समाज के बीच स्त्री को हमेशा दूसरी श्रेणी का
माना जाता है। स्त्री को जिस तरह की आज़ादी व समानता मिलने की जरूरत है उस तरह न मिलने
पर सामाजिक, राष्ट्रीय, राजनीतिक क्षेत्रों में हुए कार्यकलापों का नतीजा ही आज साहित्य
क्षेत्र में विकसित स्त्री विमर्श है। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि अमेरिकी और फ़्रेंच
आन्दोलनों के फलस्वरूप विकसित खुली सोच का एक दूसरा रूप ही स्त्री विमर्श है। आगे इस
विचारधारा की समाजवादी स्त्रीवाद, अस्तित्ववादी स्त्रीवाद और मार्क्सवादी स्त्रीवाद
के रूप में हुई।
हिन्दी
साहित्य में स्त्री विमर्श की पहल नई नहीं है। स्त्री विमर्श का अपना लंबा इतिहास रहा
है। वर्तमान समय में स्त्री विमर्श ने स्त्री मुक्ति, स्वतंत्रता, अस्तित्व एवं अस्मिता
से संबंधित सभी पहलुओं को उल्लेख किया है। “नारी विमर्श नारी मुक्ति से संबंध एक विचारधारा
है। यह एक ऐसा विमर्श है जो नारी जीवन के छुए-अनछुए पीड़ा जगत के उद्घाटन के अवसर उपलब्ध
कराता है।”[1] स्त्री
विमर्श को अनेक रचनाकारों ने विभिन्न रूप से परिभाषित किया है। हिन्दी साहित्य में
अनेक लेखिकाओं ने अपने दुख-दर्द को सहकर तथा
स्त्री जीवन के यथार्थ रूप को प्रस्तुत किया है। स्त्री विमर्श के केन्द्र में
नारी मुक्ति संघर्ष एक महत्वपूर्ण बिंदु है। इस स्त्री संघर्ष को स्त्री विमर्श की
पृष्ठभूमि भी कह सकते है जो पाश्चात्य से आरंभ हुई। “अमेरिका में सन 1965 ई. में स्त्रियों
की स्वाधिनता व अधिकारों को लेकर बेंटी फ्रायडेन ने ‘द फेमेनिन मिस्टेक’ नामक चर्चित
पुस्तक लिखी। सन 1966 ई. से महिलाओं के राष्ट्रीय संगठन की स्थापना हुई जिसके आधार
पर सन 1970 ई. के आस-पास आन्दोलन हुए।”[2] स्त्री
का आत्मसंघर्ष अपनी निरंतरता में प्रत्येक युग में विद्यमान रहा है। समय के बदलते तापमान
में, बदलते सामाजिक सन्दर्भों में अपनी अधिनस्त की भूमिका, शोषण, असमानता से मुक्ति
के प्रयत्न एवं दोहरे मानदंडों के बीच अपनी बदलती सामाजिक भूमिका के बावजूद स्त्री
के प्रश्न नहीं बदले हैं। स्त्री विमर्श का सरोकार जीवन और साहित्य में स्त्री मुक्ति
के प्रयासों से है। स्त्री की स्थिति की पड़ताल उसके संघर्ष एवं पीड़ा की अभिव्यक्ति
के साथ-साथ बदलते हुए सामाजिक सन्दर्भों में उसकी भूमिका, तलाशे गए रास्तों के कारण
जन्में नए प्रश्नों से टकराने के साथ-साथ आज भी स्त्री की मुक्ति का मूल प्रश्न उसके
मनुष्य के रूप में अस्वीकारे जाने का प्रश्न है।
हिन्दी
साहित्य के विभिन्न विधाओं में उपन्यास साहित्य का एक महत्वपूर्ण स्थान है। साथ-साथ
अनेक महिला लेखिकाओं ने अपने उपन्यास साहित्य के माध्यम से स्त्री जीवन के यथार्थ रूप
को प्रस्तुत ही नहीं किया बल्कि उनकी पीड़ा, दर्द, अस्मिता की पहचान तथा चेतना आदि अनेक
पहलुओं का उल्लेख भी किया है। हिन्दी उपन्यास साहित्य में प्रभा खेतान का स्थान अग्रणीय
है। इनका साहित्य बहुआयामी है। उन्होंने सहजशैली में स्त्री के विविध रूपों के साथ
स्त्री जीवन की समस्याएँ तथा स्त्री विमर्श पर खुल कर लिखा है। वह स्त्री स्वतंत्रता
की प्रबल समर्थक रही है। वह चाहती है कि समाज की जर्जर और रूढ़ मान्यताओं के खिलाफ संघर्ष
करते हुए भारतीय स्त्री और विदेशी स्त्री आत्मसम्मान का जीवन व्यतीत करे। प्रभा खेतान
का समग्र साहित्य उनके अनुभवों की उपज है। उनके साहित्य का उनके जीवन से गहरा संबंध
है।
‘छिन्नमस्ता’
प्रभा खेतान द्वारा लिखित एक महत्वपूर्ण नारी केन्द्रित उपन्यास है। इस उपन्यास का
कथन नारी के बनते-बिघड़ते रिश्तों की टकराहटों की दास्तान है। यह उपन्यास भारतीय रूढ़िग्रस्त
समाज की सच्ची तस्वीर है। उच्चवर्गीय, मध्यवर्गीय नारी की अस्मिता को बचाए रखने का
लेखिका ने प्रयास किया है। इसमें नारी के शोषण का चित्रण है। इस उपन्यास में मारवाड़ी
समाज, उनका अपना वजूद, आन्तरिक जीवन, व्यवसायिक जीवन संघर्ष, धार्मिकता, अन्धश्रद्धा,
प्रेम समस्या, आधुनिकता आदि कई समस्याओं का चित्रण किया है। साथ ही इसमें मारवाड़ी समाज
में स्त्री की दयनीय स्थिति, पुरानी पिढ़ी और नई पिढ़ी के संघर्ष का यथार्थ चित्रण दिखाई
देता है।
‘छिन्नमस्ता’
उपन्यास प्रिया के जीवन संघर्ष की मार्मिक कथा है। उपेक्षित प्रिया का बचपन, माँ के
प्यार के लिए तरसता मन, हर एक की दुतकार से अपमानित होता मन, घर में ही भाई द्वारा
अत्याचारित प्रिया की दर्दभरी व्यथा का वर्णन ‘छिन्नमस्ता’ में चित्रित है। शादी के
बाद भी प्रिया का संघर्ष, पति नरेन्द्र की वहशी भूख को मिटाते-मिटाते त्रस्त होनेवाली
प्रिया का मन अन्दर ही अन्दर टूटता नज़र आता है। वह बिजनेस में शरीक होकर मुक्ति की
ऊँची उड़ान लेती है और अकेली जीना पसंद करती है। भारतीय नारी की नियति यही है कि वह
अपनी महत्वकांक्षा के लिए जी-जान से परिश्रम करती है। परंतु उसे प्रेरित- प्रोत्साहित
करने के बजाय उसकी निन्दा की जाती है। प्रिया की यही त्रासदी है कि पति उस पर तीक्ष्ण
बाण चलाता रहता है। नरेन्द्र प्रिया से बार-बार कहता है कि तुम्हें इतनी खुली छूट देने
की गलती मेरी ही थी। पति द्वारा बार-बार अपमानित होने के पश्चात प्रिया सोचती है कि
“आपसी ईमानदारी, वफादारी, प्यार, समर्पण व्यर्थ होते है, औरत को यह सब इसलिए सिखाया
जाता है कि वह इन शब्दों के चक्रव्युह से कभी नहीं निकल पायें ताकि युगों से चली आती
आहुति की परंपरा को कायम रखे।”[3] अत:
प्रिया के विचार पुरोगामी है, वह दबना नहीं चाहती, दकियानुसी, परंपरागत धारणाओं से
नारी के पैरों को हमेशा से पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने जकड़ना चाहा परंतु जब यह नहीं
हुआ तो बड़े-बड़े शब्दों में फँसा कर उसका शोषण करने का नया तरीका अपनाया जा रहा है,
जिससे प्रिया अपने आप को अछुता रखती है। लेखिका ने नारी की वर्तमान दशा और दिशा को
देखकर चिंतित होती है और उसकी यही चिन्ता चिंतन बनकर साहित्य में उभरती है। स्त्री
का जीवन अश्रुमयी घटनाओं का इतिहास होता है। उसे न चाहकर भी अपने आँसू बहाने के लिए
विवश होना पड़ता है। “औरत कहाँ नहीं रोती? सड़क पर झाडू लगाते हुए, खेतों में काम करते
हुए, एयरपोर्ट पर बाथरूम साफ करते हुए या फिर सारे भोग-एश्वर्य के बावजूद मेरी सासूजी
की तरह पलंग पर रात-रात भर अकेले करवट बदलते हुए। हाड-मांस की बनी ये औरत…. अपने-अपने
तरीके से ज़िन्दगी जीने की कोशिश में छटपटाती ते औरतें! हज़ारो सालों से इनके ये आँसू
बहते आ रहे है।”[4]
समाज
चाहे कितना भी बदले लेकिन स्त्री के बारे में पुरुषों के विचार आज भी वही हैं। स्त्री का स्वतंत्र होना पुरुष को बर्दाश्त
नहीं होता है। परंतु इस उपन्यास की नारी पुरुष के हर अन्याय, अत्याचार को सहकर भी एक
महत्वकांक्षी नारी बनकर अपनी लड़ाई खुद अकेली लड़ती है और पुरुष से मुक्ति पाती है। आधुनिक
युग में नारी की त्रासदी, पुरुष का वर्चस्व, नारी को अपने वश में रखने की पुरुष की
महत्वकांक्षा, नारी के बढ़ते कदम को देखकर आक्रांत होना ही इस उपन्यास का मुख्य विषय
है। साथ-साथ यह उपन्यास नारी की त्रासदी और उसके संकल्प का एक प्रामाणिक दस्तावेज है।
अत:
प्रिया अपने बचपन से लेकर विवाह होने तक शोषण की अधिकारी रही है। बचपन में भाई द्वारा,
महाविद्यालय में प्रो.मुखर्जी द्वारा, विवाह के उपरांत पति द्वारा शोषित होती रही।
कई सन्दर्भों में प्रिया अत्याचार, शोषण का विरोध भी करती हुई नज़र आती है। यह विद्रोह
एक या दो साल में घटी घटनाओं का परिणाम नहीं, अपितु बचपन से लेकर वैवाहिक जीवन तक घटी
घटनाओं की यह प्रक्रिया है, जो प्रिया को सभी बन्धनों को नकारकर अपने आप को मुक्त करके
अपने अलग व्यक्तित्व का निर्माण करने के लिए प्रोत्साहित करता है। आज स्त्री शिक्षित
एवं स्वावलंबी बन रही है, समाज में अपनी अस्मिता की पहचान बना रही है। वह हर क्षेत्र
में अपना एक स्थान कायम कर रही है। वैयक्तिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि स्तरों
पर होने वाले शोषण, अत्याचार के विरोध में संघर्ष की तैयारी कराना ही स्त्री विमर्श
का मुख्य लक्ष्य है।